चारणों का उद्भवन



चारणों का उद्भवन कैसे और कब हुआ, वे इस देश में कैसे फैले और उनका मूल रूप क्या था, आदि प्रश्नों के संबंध में प्रामाणिक सामग्री का अभाव है; परंतु जो कुछ भी सामग्री है, उसके अनुसार विचार करने पर उस संबंध में अनेक तथ्य उपलब्ध होते हैं।



चारणों की उत्पत्ति दैवी कही गई है। ये पहले मृत्युलोक के पुरुष न होकर स्वर्ग के देवताओं में से थे (श्रीमद्भा. 3।10।27-28)। सृष्टिनिर्माण के विभिन्न सृजनों से चारण भी एक उत्पाद्य तत्व रहे हैं। भागवत के टीकाकार श्रीधर ने इनका विभाजन विबुधा, पितृ, असुर, गंधर्व, भूत-प्रेत-पिशाच, सिद्धचारण, विद्याधर और किंनर किंपुरुष आदि आठ सृष्टियां के अंतर्गत किया है। ब्रह्मा ने चारणों का कार्य देवताओं की स्तुति करना निर्धारित किया। मत्स्य पुराण (249.35) में चारणों का उल्लेख स्तुतिवाचकों के रूप में है। चारणों ने सुमेर छोड़कर आर्यावर्त के हिमालय प्रदेश को अपना तपक्षेत्र बनाया, इस प्रसंग में उनकी भेंट अनेक देवताओं और महापुरुषां से हुई। इसके कई प्रसंग प्राप्त होते हैं। वाल्मीकि रामायण- (बाल. 17.9, 75.18; अरण्य. 54.10; सुंदर. 55.29; उत्तर. 4.4) महाभारत - (आदि. 1202.1, 126.111; वन 82.5; उद्योग. 123.4.5; भीष्म. 20।16; द्रोण. 124.10; शांति. 192.7-8) तथा ब्रह्मपुराण-(36.66) में तपस्वी चारणों के प्रसंग मिल जाते हैं। ब्रह्मपुराण का प्रसंग तो स्पष्ट करता है कि चारणों को भूमि पर बसानेवाले महाराज पृथु थे। उन्होंने चारणों को तैलंग देश में स्थापित किया और तभी से वे देवताओं की स्तुति छोड़ राजपुत्रों और राजवंश की स्तुति करने लगे (ब्रह्म पु. भूमिखंड, 28.88)। यहीं से चारण सब जगह फैले। महाभारत के बाद भारत में कई स्थानों पर चारण वंश नष्ट हो गया। केवल राजस्थान, गुजरात, कच्छ तथा मालवे में बच रहे। इस प्रकार महाराज पृथु ने देवता चारणों को "मानुष चारण" बना दिया। यही नहीं जैन धर्म सूत्रग्रंथ (महावीर स्वामी कृत पन्नवणा सूत्र) में मनुष्य चारण का प्रसंग मिलता है। कल्हण ने अपनी राजतरंगिणी में चारण कवियों के हँसने का उल्लेख किया है। (रा. त. 7.1122)।





चारणों का निवास क्षेत्र एवं सामाजिकताइन प्रसंगों द्वारा चारणों की प्राचीनता उनका कार्य तथा उनका सम्मान और पवित्र कर्तव्य स्पष्ट होता है। कर्नल टाड ने लिखा है : इन क्षेत्रों में चारण मान्य जाति के रूप में प्रतिष्ठित हैं। 1901 के जनगणना विवरण में कैप्टन बेनरमेन ने चारणों के लिये लिखा है : चारण पवित्र और बहुत पुरानी जाति मानी जाती है। इसका वर्णन रामायण और महाभारत में है। ये राजपूतों के कवि हैं। ये अपनी उत्पत्ति देवताओं से होने का दावा करते हैं। राजपूत इनसे सदैव सम्मानपूर्वक व्यवहार करते हैं। ये बड़े विश्वासपात्र समझे जाते हैं। इनका दर्जा ऊँचा है। ये अक्सर" बारहटजी " के नाम से पुकारे जाते हैं।






मारवाड़ में रहनेवाले चारण मारू (माडिग्री) तथा कच्छ के(काछेला ) कहलाते हैं। उपर्युक्त उद्धरणों के अनुसार चारण जाति देवता जाति थी, पवित्र थी, जिसको सुमेर से हिमालय पर और हिमालय से भारत में लाने का श्रेय महाराज पृथु को है। यहीं से ये सब राजाओं के यहाँ फैल गए। चारण भारत में पृथु के समय से ही प्रतिष्ठित रहे हैं। परंतु आधुनिक विद्वान् इसे सत्य नहीं मानते। श्री चंद्रधर शर्मा लिखते हैं : ब्राह्मणों के पीछे राजपूतों की कीर्ति बखाननेवाले चारण और भाट हुए (ना. प्र. प., भाग 1, पृ. 229-231, सं. 1997)।



डा. उदयनारायण तिवारी ने अपने ग्रंथ वीरकाव्य में चारणों पर थोड़ा सा प्रकाश डाला है। उसमें वे पीटर्सन की रिपोर्ट का जिक्र मुरारी कवि के श्लोक में उद्धृत शब्दों - चारणगीत और ख्यात का विश्लेषण करते हुए उनका समय 8वीं 9वीं शताब्दी तक मानते हैं। हरि कवि के श्लोकसंग्रह सुभाषित हारावली से चारण संस्कृत कवियों के समकालीन ठहरते हैं, जिसमें डा. तिवारी की सहमति नहीं है। पं. हरप्रसाद शास्त्री चारणों का काल 15वीं शताब्दी का अंतिम भाग मानते हैं। लेकिन 11वीं, 12वीं, और 13वीं शताब्दी के हस्तलिखित ग्रंथों में चारण शैली का प्रयोग किया गया है। सौराष्ट्र में 12वीं शताब्दी में हुए जयसिंह के राज्यकाल में भी चारण थे। "अचलदास खीची री वचनिका" तथा "ढोला मा डिग्री" जैसे लोककाव्यों में भी चारणों की चर्चा मिल जाती है। डा. तिवारी ने चारणों के 120 कुलों की सूचना दी है और उनके अन्य कुलों की उत्पत्ति ब्राह्मणों तथा राजपूतों से बताई है। फिर भी समय और इन कुलों के उद्भव के संबंध में अनिश्चितता है। लेकिन यह निश्चित है कि(मारू ) माडिग्री चारण राजस्थान के श्रृंगार रहे हैं तथा उनका समय पर्याप्त प्रचीन रहा होग। यों 15वीं शताब्दी से उदयपुर, बीकानेर, जयपुर, जोधपुर, जैसलमेर, कोटा, बूँदी आदि लगभग सभी राजस्थानी राजकुलों में चारण कवियां की बहुत सम्मानित परंपरा रही है। राजा लोग चारणों का तथा उनके काव्यों का अत्यधिक सम्मान करते रहे हैं, यहां तक कि उन्हें लाख पसाव करोड़ पसाव, जागीरें, सम्मान, पदक, उपाधियाँ आदि देकर अपना काव्यप्रेम प्रकट करते रहे हैं। जोधपुर के महाराज मानसिंह ने तो चारणों के लिये ही यह छंद बनाया था :

करण मुहर महलीक क्रतारथ परमारथ ही दियण पतीज
चारण कहण जथारथ चौड़े चारण बड़ा अमोलक चीज




चारण हिंदू हैं, वे किसी संप्रदायविशेष से संबंधित नहीं है1 करणी उनकी कुलदेवी हैं। बीकानेर के पास उनका मंदिर है। आज भी ये "जयमाताजी" कहकर ही बात करते हैं। ये "माता" के पूजक और शाक्त हैं।

चारणों ने पर्याप्त साहित्यसृजन किया है। 15वीं शताब्दी के जोधायन से लेकर वंशभास्कर जैसे ग्रंथों की रचना का श्रेय चारणों को ही है। डिंगल शैली और गीतिरचना चारणों की मूल विशेषता कही जा सकती है। माडिग्री चारण आज भी सैकड़ों हजारों छंद कंठस्थ किए रहते हैं। परंतु इतनी बड़ी परंपरा होते हुए भी चारण अब अपने कर्तव्य में शिथिल होते जा रहे हैं।

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